भक्तिकाल में तुलसी के सामाजिक सरोकार 'रामचरितमानस के परिप्रेक्ष्य में
DOI:
https://doi.org/10.8855/tcht7146Abstract
हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल ने अपने अतीत का निराशा जन्य धुंधलका देखा, शोर और सन्नाटा भी देखा। धुरीहीनता, आस्था हीनता, दिशाहीनता, अपूर्णता, गन्तव्य हीनता और केन्द्र विहीनता को भी देखा। ऐसी स्थिति में भटकी हुई समाज की वैचारिकता पर भक्तिकाल के रोशन हाथों की दस्तक हुई जहाँ एक ओर निष्क्रियता, टूटन और बिखराव ने अपने पैर पसार रखे थे, वहीं भक्त कवियों की चिन्तनधारा ने फूल, शूल, धूल, चन्दन, सुन्दरता, कुरूपता किसी से भी दामन ना बचाते हुए जन - साधारण के मानस पटल को भक्ति और शान्ति से सींचकर आनन्द से तरंगायित कर भविष्य की स्वर्णिम आशा किरणों से पोषित किया। भक्त कवियों के रूप में आम-जन के चारों और सुन्दर वैचारिकता का कवच था जिसके फलस्वरूप जन-साधारण को आँखें दिखाते हुए, घेरते हुए कितने सारे तथ्य, विषय, प्रसंग घटनाएँ, मंजर छवियाँ, शोरगुल और हो हल्ला से राहत मिलने लगी यानि भक्तिकाल में सामाजिक मूल्यवत्ता उत्कृष्ट होने लगी, क्योंकि भक्तिकालीन कवियों ने समाज के विकृत रूप को सँवारने का अथाह प्रयास किया। डॉ. गोपेश्वर सिहं से शब्दों में- "वह काव्य भी है अपने समय का समाजशास्त्र भी, वहाँ कवि उपदेशक भी है,