साहित्य और समाज: एक विवेचना
DOI:
https://doi.org/10.8855/aw1pgm77Abstract
किसी भाषा के संचित कोष को साहित्य कहते हैं जिसमें उस भाषा के बोलने वाले समाज के भाव व्यक्त होते हैं।साहित्यकार यद्यपि समाज की एक इकाई होता है तथापि वह समाज का प्रतिनिधित्व करता है। कवि जिस युग में जन्म लेता है उसकी छाप उसके साहित्य पर साफ दिखाई पड़ती है।समाज तथा युग भी उसके साहित्य से प्रभावित हुए बिना कदापि नहीं रह सकते। कवि अथवा साहित्यकार युगद्रष्टा होता है। वह युग के अन्तर में प्रवेश करके उसकी आत्मा के दर्शन करता है और उसे अपने साहित्य में व्यक्त करता है। वह अपने अनुभव और सहृदयता के कारण युगे की भावनाओं को ऐसा रूप देता है जो नवीन न होते हुए भी साधारण लोगों की पहुँच से परे की वस्तु होती है। उसके चित्र काल्पनिक होते हुए भी सत्य होते हैं। उसके साहित्य को पढ़कर ही तत्कालीन राजनीतिक, धार्मिक एवं सामाजिक परिस्थितियों को अनुभव किया जा सकता है। तात्पर्य यह है कि साहित्य में तत्कालीन सामाजिक भावनाओं, परिस्थितियों एवं आचार-विचारों का ही चित्रण होता है। या यों कहें कि साहित्य में समाज प्रतिबिम्बित होता है।