मातृभाषा का व्यक्ति विकास में योगदान: एक अध्ययन
DOI:
https://doi.org/10.8855/9sj8cr94Abstract
भारतीय ज्ञान, विज्ञान, शास्त्र एवं दर्शन की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। वेदों से जिस ज्ञान एवं दर्शन की परम्परा का प्रवाह आरम्भ हुआ, वह अनेकानेक विषम परिस्थितियों से गुजरते हुए अपने मूल रूप में आज भी विद्यमान है। वैश्विक स्तर पर आध्यात्मिक एवं भौतिक जीवन दृष्टियों का द्वन्द्व देखने को मिलता रहा है। हमारी आध्यात्मिक चेतना और जीवन दृष्टि आज भी अपने विशिष्टता के कारण प्रांसगिक बनी हुई है। भारतीय ज्ञान और दर्शन का मूल आधार हमारी आध्यात्मिकता है।
भारतीय दर्शन परम्परा में भाषा को विशेष महत्त्व दिया गया है। भाषा के प्रति हमारी दर्शन परम्परा में बहुत ही उदार भाव रहा है। भारतीय भाषा दर्शन की परम्परा में शब्द और मंत्र को ब्रह्म कहा गया है और शब्द से ही भाषा विकास की मान्यता है । भाषा मनुष्य के सामुदायिक जीवन के आरम्भ से निरन्तर प्रवाहित होने वाली प्रक्रिया है, जिसमें समय, समाज एवं परिस्थितियों के अनुसार निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। वैदिक संस्कृत से जो भाषा परम्परा भारत में आरम्भ हुई, वह लौकिक संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश से होते हुए आधुनिक भारतीय भाषाओं तक की यात्रा तय कर चुकी है। भाषा यात्रा की यह परम्परा सामाजिक जीवन एवं उसमें होने वाली परिवर्तनों की यात्रा है। आधुनिक भारतीय भाषाओं का समय दसवीं शताब्दी से आरम्भ हुआ जो कमोवेश आज भी चल रहा है।