हिंदी उपन्यासों में कश्मीर: सांस्कृतिक–सामाजिक विविधता व एकता
DOI:
https://doi.org/10.8855/p6cabd92Abstract
देवी पार्वती और हिमालय की गोद में स्थित कश्मीर, जिसे कभी धरती का स्वर्ग कहा जाता था, इक्कीसवीं सदी के इस भूमंडलीकृत दौर में एक रक्तरंजित रणभूमि में बदल चुका है। आज़ादी से पहले तक यह प्रदेश सामाजिक समरसता, सांस्कृतिक सौहार्द और संगठित जीवन का एक उत्कृष्ट उदाहरण था। किंतु सन् 1980 के दशक के बाद यहाँ की सामाजिक व्यवस्था डगमगाने लगी। कुछ स्वार्थी तत्वों और अलगाववादी शक्तियों ने धर्म और संप्रदाय के नाम पर इस क्षेत्र की सांझी सांस्कृतिक विरासत को खंडित करने का प्रयास कियाऔर दुर्भाग्यवश, वे इसमें सफल भी हुए।इस विघटनकारी प्रक्रिया के चलते दोनों समुदायोंहिंदू और मुस्लिमके बीच अविश्वास की खाई गहराने लगी और सामाजिक एकता में दरारें आ गईं। परिणामस्वरूप, कश्मीर में समय-समय पर सांप्रदायिक दंगे भड़कने लगे, जिनके प्रभाव आज भी इस क्षेत्र के मनोविज्ञान और सामाजिक ताने-बाने पर दिखाई देते हैं।इस संवेदनशील और विघटनकारी परिस्थिति की उपेक्षा साहित्यकारों ने नहीं की। उन्होंने अपने रचनात्मक कार्यों में दोनों समुदायों के बीच उपजे टकराव के बावजूद आपसी सौहार्द, सह-अस्तित्व और सांझी संस्कृति को समाधान के रूप में प्रस्तुत किया है। विशेष रूप से महिला उपन्यासकारों ने बदलते सामाजिक परिदृश्य की करुण स्थिति को अपने उपन्यासों में महसूस कराया है, साथ ही परंपरा, लोकविश्वास और उदारवादी पात्रों के माध्यम से कश्मीर की गंगा-जमुनी तहज़ीब को जीवित रखने का सार्थक प्रयास भी किया है।यह आलेख विशेष रूप से उन महिला उपन्यासकारों के रचनात्मक योगदान पर केंद्रित है, जिनका मूल संबंध कश्मीर से रहा है और जिन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से इस धरती की पीड़ा, संस्कृति और आशा को स्वर दिया है।