”इक्कीसवीं सदी के हिन्दी आत्मकथा में दलित समाज: सुषीला टाकभौरे के ”षिकंजे का दर्द” के विषेष संदर्भ में”
DOI:
https://doi.org/10.8855/862e4s38Abstract
21वीं सदी के हिंदी आत्मकथात्मक साहित्य ने सामाजिक यथार्थ को नई दृष्टि से सामने लाने का प्रयास किया है। विशेषकर दलित आत्मकथाओं ने जातिगत शोषण, सामाजिक भेदभाव और हाशिए पर खड़े समुदायों के अनुभवों को साहित्यिक अभिव्यक्ति प्रदान की है। डॉ. सुशीला टाक भौरे की आत्मकथा ”शिकंजे का दर्द” इस परंपरा का महत्वपूर्ण उदाहरण है, जिसमें दलित समाज की पीड़ा, संघर्ष और आत्मसम्मान की खोज को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इस आत्मकथा में दलित स्त्री के दोहरे शोषण-एक ओर जातिगत और दूसरी ओर लैंगिक-का मार्मिक चित्रण मिलता है। लेखिका ने बाल्यकाल से लेकर उच्च शिक्षा और सामाजिक जीवन तक के अनुभवों में छुआछूत, अपमान, तिरस्कार और संघर्ष को बारीकी से दर्ज किया है। इसमें दलित समाज की सामाजिक-आर्थिक दयनीय स्थिति, शिक्षा प्राप्ति में आने वाली बाधाएँ और समाज की सामंती मानसिकता से टकराने की विवशताएँ स्पष्ट झलकती हैं।
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2013-2025
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Articles