भारतीय नारी का यथार्थांकन: अनामिका
DOI:
https://doi.org/10.8855/mz8t7155Abstract
उत्तरशती का महिला लेखन अनेक संभावनाएँ लेकर प्रस्तुत हुआ और इक्कीसवीं शती में ये संभावनाएँ सामने आयी। महिला लेखन ने गति प्राप्त की, यह गति गुणात्मक और संख्यात्मक दोनों रूपों में रही है। इक्कीसवीं शती का महिला लेखन नारी के समझौतावादी दृष्टिकोण का विरोध करता है। अनुभुति की सघनता, विचार की तीव्रता, स्वानुभव का प्रत्यक्षीकरण अत्यंत आत्मीयता एवं मार्मिकता के साथ इसमें चित्रित हुआ है। डॉ. सावित्री डागा मानती है कि “आज की लेखिकाएँ ‘मैं नीर भरी दुख की बदली’, ‘परिचय इतना इतिहास यही’, ‘उमड़ी कल थी’, ‘मिट आज चली’ वाली मानसिकता से मुक्त हो चुकी है। उनकी आँखों में आँसुओं का पानी ही नहीं आक्रोश की आग भी सहज ही देखी जा सकती है।”1 आज का महिला लेखन महिलाओं की समस्याओं को आधार बनाकर लिखा जा रहा है। मुलत: यह लेखन नारी की अस्मिता, उसके अस्तित्व को दृष्टिकेंद्र में रखते हुए उसके सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक क्षेत्रों में विचार करने का और व्यवसाय करने का खुला आकाश एवं अवसर देता है। उसे मानवी रूप में जीने का वातावरण देकर उसके सशक्तिकरण पर बल देता है। इस संदर्भ में जगदीश्वर चतुर्वेदी लिखते हैं “पुरुष अपनी अस्मिता का स्वयं निर्माता था किंतु स्त्री को यह हक नहीं था। स्त्री ने जब अपने हकों की माँग की, अपने लिए सार्वजनिक जीवन में स्थान, स्पष्ट अभिव्यक्ति, स्वतंत्र पहचान और लिखने की कोशिश की, लज्जा को त्यागकर सहज शैली में व्यवहार करना शुरू किया तब उसे अपराधिनी, पापीनी, बदचलन वगैरेह विशेषणों से सुशोभित कर दिया। पुरुष निर्मित ढाँचे, नियमों, मूल्यों एवं रीवाजों से विचलन को बदचलनी का रूप दे दिया गया।”2 परंतु इस प्रकार आरोपों से स्त्री डगमगाई नहीं उसने अपने अस्तित्व का संघर्ष जारी रखा और अपने सशक्त लेखन द्वारा नारी स्वभाव की उदात्तता को अभिव्यक्त किया। हिंदी की लेखिकाओं ने स्त्री जीवन के प्रश्नों, समस्याओं, अवस्थाओं और उसके मानसिक संघर्ष को प्रमुख विषय बनाकर साहित्य सृजन किया है। आज भी स्त्री की स्वाधीनता अत्यंत सीमित है। वह अभी भी परंपरा से मुक्त नहीं हुई है। इसलिए लेखिकाओं ने स्त्री स्वतंत्रता के स्वर को प्रखरता से प्रस्तुत किया है। आज स्त्री का शोषण, उसका उत्पीड़न, उसका अपमान, उसका हाशिए का जीवन स्त्री लेखन के द्वारा अभिव्यक्त हो रहा है। यह ध्यान रखना होगा कि नारी अस्मिता और अस्तित्व का प्रश्न देश, काल और संस्कृति से प्रभावित होता है। भारतीय नारी आज जागृत हो चुकी है। उसमें स्वाभिमान है वह आत्मनिर्भर भी हो रही है। उसमें अपार बौद्धिक क्षमता भी है फिर भी वह अपने परिवार से सम्पृक्त रहती है। इक्कीसवीं शती के स्त्री लेखन में नारी को उसकी कुण्ठा से मुक्त करने का प्रयास हुआ है। यह महत्वपूर्ण बात है कि नारीने शिक्षा ग्रहण कर अपने अस्तित्व बोध की चेतना को ग्रहण किया है। उसने न केवल अपनी क्षमता को पहचाना है बल्कि अपने पर आरोपित रूढ़ियों और अंधविश्वासों को दूर करने का प्रयास भी किया है। डॉ. सुदेश बत्रा के शब्दों में “महिला रचनाकारों ने नारी को उसका स्वतंत्र व्यक्तित्व दिया है - वहाँ नारी मात्र एक शरीर या वस्तु नहीं है। वह स्वतंत्र निर्णय लेने वाली साहसी और एक मस्तिष्क भी है… अनामिका जैसी सशक्त लेखिका ने नारी की बद्धमूल जड़ता से उसकी मुक्ति, उसकी सोच, उसकी वेदना, उसकी विवशता और उसकी स्वतंत्र सत्ता को प्रामाणिकता से चित्रित किया है।”3
