कृष्णा सोबती की रचनाओं में सृजन परिवेश
DOI:
https://doi.org/10.8855/3yrkaj78Abstract
कृष्णा सोबती की रचनाओं में सृजन परिवेश
जीवन की जिन मूलभूत प्रक्रियाओं से जीवन जीवित व संचालित रहता है 'सृजन' उनमें से एक है। सृजन प्रक्रिया जीवन व समाज के जीवित रहने का सबसे महत्वपूर्ण कारक है। कलाकार व रचनाकार के संदर्भ में तो यह बात और भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है। प्रत्येक रचनाकार अपनी आंतरिक गति-यति में एक सृजनकर्ता होता है। सृजनकर्ता अर्थात सृजन करने वाला, पैदा करने वाला, जनने वाला। इन अर्थों में देखें तो रचनाकार एक कृति को जब तैयार कर पाठक वर्ग के सामने लाता है। उसके पहले वह 'सृजन' की एक लंबी यात्रा से गुजर चुका होता है। सृजन की यात्रा एक पूरा इतिहास, पूरी प्रक्रिया, पूरी कालगति एवं पूरा परिवेश लिए हुए होता है। कृष्णा सोबती की रचनाओं में यह सृजन प्रक्रिया व सृजन परिवेश का तत्व अपना नितांत उत्तर व नया रूप लिए हुए है। सीधी-सी बात है क्योंकि कृष्णा जी न किसी चली आती हुई गद्य परंपरा का निर्वहन करने वाली लीकपीटू रचनाकार हैं न ही उनकी रचनाएँ विमर्श-वाद के दीन दायरों का बोझा ढोती हैं। कृष्णा सोबती का साहित्य अपने स्वरूप में नितांत इतर, निजी व खासपने को लिए हुए है। कृष्णा सोबती के रचनाओं की अंतर्यात्रा उनके अपने निजी जीवन पथ से होती हुई व लगती हुई चलती है। 'सोबती एक सोहबत' में कृष्णा सोबती ने लिखा भी है-